शिमला, सुरेंद्र राणा: जब किसी कुख्यात अपराधी और उसके कुनबे के अपराधों पर कानून के राज की व्यवस्था शून्य हो जाए, तब कुदरत उसके अंत की रचना रचती है। अतीक अहमद के अंत की कहानी यही कह रही है। ऐसे अपराधियों को जब संवैधानिक-राजनीतिक सुरक्षा कवच मिल जाए तो अपराध की भूमिका उनके राजनीतिक और आर्थिक साम्राराज्य के विस्तार का कारण बनते जाते हैं। यह सिलसिला तब और निष्ठुर एवं हिंसक हो जाता है, जब पुलिस तो पुलिस अदालत के न्यायाधीश भी ऐसे दुर्दांत अपराधी के मामले की सुनवाई से इंकार कर दें और राजनेता व राजनीतिक दल संरक्षण देने लग जाएं ? इसीलिए अतीक बेखौफ होकर प्रयागराज में 24 फरवरी 2023 को उमेश पाल समेत दो पुलिसकर्मियों की सरेआम हत्या करा देता है।
ये हत्यारे कानून व्यवस्था से इतने निश्चित रहते हैं कि चेहरे को ढकने की बजाय खुला रखते हैं, जिससे उनका खौफ कायम हो जाए कि ये हत्यारे कौन हैं ? झांसी में मुठभेड़ में ये हत्यारे पुलिस द्वारा मारे जाते हैं, इनमें से एक अतीक का लड़का असद और दूसरा गुलाम मोहम्मद था। चूंकि उमेशपाल की हत्या के समय इन्होंने चेहरे पर आवरण नहीं डाला था, इसलिए इनकी पहचान में कोई संदेह नहीं था। उमेशपाल विधायक राजूपाल की हत्या के प्रकरण में अतीक के विरुद्ध एक वकील के रूप में निडर होकर अपने दायित्व का निर्वहन कर रहे थे।
अदालत में यह पैरवी अहमदाबाद की साबरमती जेल में बंद अतीक और बरेली की जेल में बंद उसके भाई अशरफ को नागवार गुजर रही थी। नतीजतन इन दोनों ने जेल में बैठे-बैठे ही उमेशपाल की हत्या का वारंट निकाल दिया। जब न्याय व्यवस्था के संवैधानिक अंग पुलिस, न्यायालय और वकील कानून के राज को अंजाम तक पहुंचाने में असफल दिखे तो तीन युवकों ने एकाएक पत्रकार के भेश में अवतरित होकर अतीक और अशरफ का काम तमाम कर दिया। ऐसा ही कुछ होने की आषंकाएं पहले से ही जताई जा रही थीं।
मौत को प्राप्त हो चुके अतीक के अतीत का पड़ताल करने से पता चलता है कि करीब पचास साल पहले इलाहबाद के फिरोज तांगे वाले के इस बेटे ने 17 साल की उम्र में ही जयराम की हत्या कर खून की इबारत लिखना शुरू कर दी थी। चूंकि वह नाबालिग था, इसलिए बच गया। बस फिर क्या था, इस हत्या से जो दहशत कायम हुई वह रंगदारी, अवैध वसूली और जमीन व मकान हड़पने के धंधे में बदलती चली गई। जब पुलिस, कानून और अदालत उसे किसी बंधन में नहीं बांध पाए तो पांच वर्श के भीतर ही उसका आतंक समूचे इलाहबाद और आसपास के क्षेत्र में फैलने लग गया।
हालांकि इस समय चांद बाबा और उसके गुर्गों का चलावा इस इलाके में था। लेकिन देखते-देखते अतीक ने चांद बाबा के वर्चस्व को नेस्तनाबूद कर दिया। अपराध की दुनिया से शक्ति और धन-संपदा कमा ली तो अतीक ने खादी पहनकर नेता का स्वांग धारण कर लिया। परंतु अपराध से नाता नहीं तोड़ा। बल्कि खादी और समाजसेवा की ओट में हत्या, अपहरण और फिरौती का ऐसा सिलसिला चला कि उस अकेले पर 101 से ज्यादा मामले विभिन्न अदालतों में विचाराधीन हो गए। अशरफ पर भी पचास से ज्यादा एफआईआर कई थानों में दर्ज हैं।
अपराध की दुनिया में रसूख बन गया तब अतीक अहमद जेल से छूटने के बाद 1989 में इलाहबाद की पष्चिमी विधानसभा सीट से चांद बाबा के विरुद्ध निर्दलीय प्रत्याषी के रूप में चुनाव लड़ा और धन व बाहुबल के बूते जीत भी हासिल कर ली। इस जीत के कुछ महीनों बाद ही चांद बाबा की हत्या हो गई। इसके बाद अतीक के आतंक का ऐसा परचम फहरा की उसके विरुद्ध चुनाव लड़ने से सभी दलों के नेता कन्नी काटने लगे। 1991 और 1993 में भी वह निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीता। समाजवादी पार्टी की वर्चस्व स्थापना के बाद अपराधियों का सपा में शामिल होने का सिलसिला शुरू हो गया। लिहाजा 1996 में अतीक चौथी मर्तबा सपा से विधायक बना। लेकिन किसी भी दल का वह सगा नहीं रहा। अतएव दल-बदल का सिलसिला चलता रहा। 2002 में एक बार फिर वह अपना दल के टिकट पर इलाहाबाद, पश्चिम विधानसभा से चुनाव जीता और फिर 2004 में फूलपुर लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर संसद के पवित्र मंदिर में भी दाखिल हो गया। निर्वाचन संबंधी संवैधानिक शिथिलताओं एवं कानूनी विकल्पों के चलते राजनीतिक वर्चस्व बढ़ा तो पहुंच भी बढ़ गई।
25 जनवरी 2005 को प्रयागराज के बसपा विधायक राजू पाल पर अतीक ने दिन-दहाड़े सड़क पर दौड़ा दौड़ा कर गोलियां बरसाईं। जब उसे अस्पताल ले जाया गया तो वहां इसलिए ताबड़तोड़ गोलियां बरसाईं कि कहीं राजू जिंदा न बच जाए। इस हत्याकांड की एफआईआर राजू पाल की पत्नी पूजा पाल ने अतीक और अशरफ समेत नौ लोगों की नामजद एफआईआर दर्ज कराई थी। इसी मामले की पैरवी का दुस्साहस अधिवक्ता उमेशपाल कर रहे थे। इस मामले में वह चश्मदीद गवाह भी थे। उमेश को धमकाने के साथ अपहरण करने की कोशिश भी की गई। लेकिन उमेश ने हिम्मत नहीं हारी और जिला अदालत से लेकर उच्च व उच्चतम न्यायालय तक मामले को ले गए। आखिरकार राजूपाल की हत्या के 12 साल बाद सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच के आदेश दिए। सीबीआई ने गंभीर पड़ताल के बाद अतीक, अशरफ समेत 18 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की। उमेश की निरंतर सर्तकता और न्यायालय में पैरवी के चलते इलाहबाद हाईकोर्ट ने दो माह के भीतर राजूपाल हत्याकांड की सुनवाई पूरी करने का आदेश निचली अदालत को दिया था। सुनवाई शुरू होने से पहले ही 24 फरवरी 2023 को पुलिस सुरक्षा में उमेश पाल की दिन-दहाड़े हत्या कर दी गई। सुरक्षा में लगे दो पुलिसकर्मियों को भी प्राण गंवाने पड़े। इस माफिया सरगना के तार पाकिस्तान और कई आतंकी संगठनों से जुड़े बताए जा रहे हैं। इस बाबत एटीएस और एएनआई भी अतीक से लंबी पूछताछ में लगी थी। साफ है, अतीक प्रयागराज, कोशामबी, लखनऊ, फतेहपुर, प्रतापगढ और नोएडा में तो आतंक का परचम फहराए हुए ही था, देश के लिए भी खतरा बन गया था। इसका पूरा कुटुंब जघन्यतम वारदातों में शामिल था। इसने 1168 करोड़ की अवैध संपत्ति बना ली थी, जिसे योगी सरकार ने इसकी मौत से पहले ही मुक्त करा लिया है।
न्यायिक सिद्धांत का तकाजा तो यही है कि एक तो अपराधी को समय पर ऐसी सजा मिले, जो फरियादी को न्याय लगे ? लेकिन दुर्भाग्य से अतीक और उसके गिरोह को न तो समय पर सजा मिल पाई और न ही धन-संपत्ति कमाने की उसकी हवस पर अंकुश लग पाया। बल्कि इसके उलट वह पांच बार विधायक और एक बार सांसद बनकर अपराधी होने के बावजूद कानून के दायरे से बाहर रहा। जब ऐसे लोग निर्वाचित प्रतिनिधि बन जाते हैं तो इनकी अनैतिक महत्वाकांक्षाएं और परवान चढ़ने लगती हैं। अपनी राजनीतिक इस छवि को ये दानदाता बनकर और अधिक भुनाने में लग जाते हैं। अतएव अपनी जाति और धर्म के गरीब लोगों की धर्म के नाम पर मदद कर फरिष्ते की श्रेणी में आ जाते हैं। ऐसे ही उपकृत लोग इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए इनकी जीत में निरंतर भागीदार बने रहते हैं। यह स्थिति न्याय व्यवस्था पर भरोसा करने की बजाय, उसे खूंटी पर टांग देने का काम करती है। अतीक के साथ यही हुआ और वह क्षेत्रीय खतरे के साथ पाकिस्तानी आतंकवादियों से हाथ मिलाकर राष्ट्रीय खतरे की जद में भी आता जा रहा था। लेकिन जिन तीन युवकों ने अतीक का अंत किया है, वे भी इसकी मार से आहत थे, इसलिए उन्होंने मौका पाकर अतीक और अशरफ का खुलेआम वैसे ही अंत को अंजाम दिया, जैसा करने का यह गिरोह आदि हो गया था। प्रतिशोध के मनोविज्ञान की यही मानसिकता होती है।
कुछ राजनितिक लोग इस प्रकार की हत्याओं से फिर राजनीती रोटियां सकने का काम कर रहे है। परन्तु सोचने का विषय यह भी है कि अगर कानून अपना सही तरह से काम करता तो कानून के गाल पर तमाचा लगाने से बचाया जा सकता था । परन्तु 1168 करोड़ की अवेध सम्पति का मालिक केसे एक खूंखार आतंकी बन गया। इस पर अडानी अम्बानी पर प्रशन उठाने वाले भी चुप है और फेस बूकिया भी । हमारे लोकतंत्र के मंदिर को किस प्रकार दूषित किया गया, इसका उदाहरन अतीक और उसका भाई ही है ।
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