शिमला(सुरेन्द्र राणा); हिमाचल प्रदेश की सियासी फिजाओं में यह सवाल अब सालों बाद फिर गूंजने लगा है कि पांच साल तक विपक्ष का चेहरा और चुनावों में सीएम फेस रहे प्रेम कुमार धूमल तमाम कसरतों के बावजूद तीसरी बार आखिर क्यों सत्ता से बाहर हैं। प्रदेश में भाजपा सरकार अब फिर चुनावी साल में है और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड हिमाचल की शांत फिजाओं में सियासी गरमाहट का कारण बना है। चार साल पहले का सियासी घटनाक्रम फिर हिमाचल के लोगों के जहन में तरोताजा हो गया है।
धामी और धूमल की हार में महज पांच हजार का फासला है। ऐसे में लोकप्रियता और जनता का जनादेश तो बीजेपी के लिए कोई पैमाना नहीं है यह तो तय है। धूमल महज दो हजार के लगभग मतों से हारे थे, जबकि धामी की हार का अंतर सात हजार है। अब यक्ष प्रश्न यह है कि सत्ता तक पहुंचने के बाद एक जैसे सियासी हालातों में भाजपा के कर्ताधर्ताओं के निर्णय अलग क्यों?
भाजपा में 70 प्लस का फार्मूला भी चर्चा में रहता है। यह भी माना जा रहा है कि भविष्य की राजनीति को देखते हुए भाजपा हाईकमान ने धामी को सीएम बनाने का निर्णय लिया है। 16 सितंबर 1975 को जन्म लेने वाले पुष्कर सिंह धामी भाजपा की भविष्य की राजनीति में हार के बावजूद फिट बैठे, जबकि 10 अप्रैल 1944 में जन्मे प्रेम कुमार धूमल चुनावों के साथ भाजपा की भविष्य की राजनीति के सांचे में सहज न होने से सीएम की कुर्सी से मात खा बैठे। राजनीतिक अनुभव यदि पैमाना होता तो धूमल धामी से कहीं अधिक राजनीतिक अनुभव रखते हैं।
धूमल के चेहरे के बूते प्रदेश में भाजपा सत्ता में काबिज हो गई, लेकिन धूमल चुनाव हार गए। ऐसे में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि केंद्र में भाजपा का एक गुट पहले से ही धूमल को सीएम फेस बनाने के पक्ष में नहीं था। सीएम फेस घोषित होने के साथ ही धूमल की सीट को बदला गया था और हमीरपुर विधानसभा क्षेत्र की बजाए सुजानपुर से उन्हें चुनाव लड़ाया गया था।
यहां पर उनके करीबी रहे राजेंद्र राणा ने उन्हें मात दी। हार और जीत की परिस्थितियां तो बाद में पैदा हुई, लेकिन सीएम कुर्सी के लिए भाजपा में लॉबिंग पहले से ही हिमाचल में जारी थी। इन सियासी घटनाक्रमों को अब उत्तराखंड में हार के बावजूद धामी को सीएम बनाने और धूमल को न बनाने से जोड़ा जा रहा है।
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