झगड़ालू मुकदमेबाजी के बजाय जिम्मेवारी से काम करें अधिकारी, हाईकोर्ट की सरकार को कड़ी फटकार

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शिमला, सुरेन्द्र राणा: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की झगड़ालू मुकदमेबाजी की प्रवृति पर प्रतिकूल टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि सरकार अनुचित कार्रवाई को उचित ठहराने के प्रयास में सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा रही है। अदालत ने इससे बचने के लिए सरकारी अधिकारियों को झगड़ालू मुकदमेबाजी के बजाय जिम्मेवारी से काम करने की नसीहत दी है। न्यायाधीश तरलोक सिंह चौहान और न्यायाधीश सत्येन वैद्य की खंडपीठ ने यह निर्णय सुनाया।

याचिकाकर्ता कृृष्ण लाल की याचिका का निपटारा करते हुए अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता को बिना पदभार मुक्त किए दूसरे पद पर ज्वाइन करने के लिए बाध्य किया गया था। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता को असंभव कार्य करने के लिए कानूनन बाध्य नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि बार-बार सरकार पर दबाव डाला जाता रहा है कि वह मुकदमेबाजी नीति को लागू करे।

लेकिन, सरकार के अधिकारी झगड़ालू मुकदमेबाजी को अहमियत दे रहे हैं। अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता की नियुक्ति शारीरिक शिक्षक (डीपीई) के पद पर हुई थी। उसने वरिष्ठ डीपीई होने के नाते उप निदेशक के पद पर तैनाती के लिए आवेदन किया था। 4 मार्च 2023 को उच्चतर शिक्षा निदेशक ने अधिसूचना जारी कर उसकी पदोन्नति के आदेश जारी किए।

उसे 20 मार्च को उपनिदेशक कार्यालय कुल्लू में रिपोर्ट करने को कहा गया था। याचिकाकर्ता ने 18 मार्च को बजौरिया वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला के प्रधानाचार्य को उसे कार्यभार मुक्त करने के लिए आवेदन किया। लेकिन, प्रधानाचार्य की ओर से उसे पदभार से मुक्त नहीं किया गया।

20 मार्च को ही उपनिदेशक कुल्लू ने याचिकाकर्ता को सूचित किया कि उसकी प्रतिनियुक्ति के आदेश तुरंत प्रभाव से रद्द कर दिए गए हैं। इतना ही नहीं हैरानी कि बात तो यह रही कि इसके बाद प्रतिवादी सुभाष शर्मा को उप निदेशक के पद पर तैनाती करने के आदेश जारी कर दिए गए।

हाईकोर्ट में भी शिक्षा विभाग भी याचिकाकर्ता की प्रतिनियुक्ति को रद्द करने की असली वजह नहीं बता पाया। अदालत ने पाया कि स्कूल के प्राधानाचार्य ने बार-बार अनुरोध के बावजूद भी याचिकाकर्ता को पदभार से मुक्त नहीं किया। अपनी गलती मानने के बजाय वे ऐसे कारणों का आविष्कार करने में जुट गए जो बिल्कुल झूठे, बेतुके और कानून की नजर में टिकाऊ नहीं है।

अनुकंपा रोजगार नीति में हिमाचली प्रमाण पत्र होने की शर्त रद्द

प्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की अनुकंपा रोजगार नीति के तहत नौकरी देने के मामले में अहम निर्णय सुनाया है। अदालत ने अनुकंपा रोजगार नीति में नौकरी के लिए हिमाचली प्रमाण पत्र होने की शर्त को असांविधानिक ठहराया है। अदालत ने इस शर्त को भारतीय संविधान के अनुछेद 16 (2) के प्रावधानों के विपरीत पाते हुए रद्द कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश एमएस रामचंद्र राव और न्यायाधीश अजय मोहन गोयल की खंडपीठ ने यह निर्णय सुनाया।

पंजाब निवासी संदीप कौर की याचिका को स्वीकार करते हुए अदालत ने उसे वन निगम में नौकरी देने के आदेश दिए है। साथ ही अदालत ने वन निगम की ओर से उसे नौकरी न देने के निर्णय को भी खारिज कर दिया। अदालत ने वन निगम की ओर से याचिकाकर्ता को सार्वजनिक रोजगार से वंचित करने के लिए 10 हजार रुपये की कॉस्ट लगाई है।

अदालत को बताया गया था कि याचिकाकर्ता के पिता वन निगम में वन रक्षक के तौर पर नौकरी करते थे। 16 जुलाई 2020 को नौकरी के दौरान उनकी मौत हो गई थी। याचिकाकर्ता ने 29 अक्तूबर 2021 को राज्य सरकार की अनुकंपा रोजगार नीति के तहत लिपिक के पद के लिए आवेदन किया था। 17 मार्च 2022 को वन निगम ने याचिकाकर्ता से पेंशन प्रमाण पत्र, चरित्र और हिमाचली प्रमाण पत्र जमा करवाने के लिए कहा गया था।

अदालत को बताया गया कि याचिकाकर्ता ने पंजाब पुलिस से जारी किया हुआ चरित्र प्रमाण पत्र पेश किया। अदालत को बताया गया कि उसने हिमाचली प्रमाण पत्र जारी करने के लिए आवेदन किया था लेकिन हिमाचल में उसका घर न होने के कारण यह प्रमाण पत्र जारी नहीं किया गया। 7 जून 2023 को वन निगम ने याचिकाकर्ता के आवेदन को यह कहकर खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता के दस्तावेज अनुकंपा रोजगार नीति के तहत नहीं है।

अदालत ने मामले से जुड़े रिकॉर्ड का अवलोकन करने पर पाया कि याचिकाकर्ता को उस कार्य को करने के लिए कहा गया जो संभव नहीं था। अदालत ने कहा कि सार्वजनिक रोजगार के लिए हिमाचली प्रमाण पत्र की शर्त जरूरी करना गैर कानूनी है। अदालत ने कहा कि यह प्रमाणित है कि याचिकाकर्ता वन निगम के कर्मी की लड़की है और भारत की नागरिक है। ऐसे में अनुकंपा के आधार पर नौकरी देने के लिए हिमाचली प्रमाण पत्र की शर्त असांविधानिक है।

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