देश: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की विचारधारा से जुड़ी पत्रिका ‘ऑर्गेनाइजर’ में छपा एक लेख इस समय खूब चर्चा में है। पत्रिका के संपादक प्रफुल्ल केतकर के द्वारा लिखे गए इस संपादकीय लेख में कहा गया है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम ने यह बता दिया है कि केवल ‘हिंदुत्व का एजेंडा’ और ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि’ चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें किसी राज्य का चुनाव जीतने के लिए मजबूत स्थानीय नेतृत्व को अहम कारक बताया गया है।
माना जा रहा है कि इस लेख के बहाने संघ ने भाजपा को राज्यों में मजबूत स्थानीय नेतृत्व विकसित करने और विकासवादी राजनीति अपनाने की सलाह दी है।
हिंदुत्व और ब्रांड मोदी को लेकर संघ परिवार की चिंता का कारण क्या है? क्या भाजपा की इस सबसे बड़ी ताकत में अब चुनाव जिताने की क्षमता बाकी नहीं बची? लोकसभा चुनाव के लगभग एक साल पहले जब भाजपा चुनावी तैयारियों को अंतिम जामा पहना रही हो, संघ की इस नसीहत के खास मायने हैं और इसे समझे जाने की आवश्यकता है।
भाजपा के विषय में यह चर्चा है कि 2014 से ही पूरी पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के आसपास केंद्रित हो गई है। अनजानी रणनीति के अंतर्गत पार्टी ने राज्यों में प्रभावी नेतृत्व विकसित नहीं किया और पार्टी का पूरा चुनावी अभियान पीएम नरेंद्र मोदी के आसपास सिमटा रहा। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा सहित कई राज्यों में पार्टी का यह दांव सफल साबित हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर जमकर वोट पड़े और इन राज्यों में अभूतपूर्व बहुमत से भाजपा की सरकारें बनीं।
लेकिन कुछ समय बाद ही कुछ राज्यों में यह कार्ड अपेक्षित परिणाम नहीं दे सका और पार्टी को पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में करारी हार का सामना करना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आक्रामक चुनाव प्रचार भी विपक्षी दलों के मजबूत स्थानीय नेतृत्व के क्षेत्रीय करिश्मे के सामने ढह गया।
बिहार भाजपा के एक नेता ने कहा कि पार्टी ने लंबे समय से प्रदेश में कोई बड़ा नेता विकसित करने की कोशिश नहीं की। इसका परिणाम रहा कि उसे सत्ता में आने के लिए नीतीश कुमार का सहारा लेना पड़ा। इसका दुष्प्रभाव हुआ कि आज भी पार्टी प्रदेश में अपने बूते चुनाव जीतने और सत्ता में आने योग्य नहीं बन पाई। जबकि इसी के पास उत्तर प्रदेश में पार्टी ने स्थानीय मजबूत दलों को धूल चटाते हुए अपनी मजबूत अजेय छवि बना ली है।
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